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स्व.भिखारी ठाकुर जयंती विशेष: रंगवा में भंगवा परल हो बटोहिया !

ध्रुव गुप्त जी के कलम से

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लोकभाषा भोजपुरी के साहित्य के जब भी बतकही होला त पहिलका नाम जवन उभर के सामने आवेला ऊ नाम ह स्व भिखारी ठाकुर के। ऊहवा के भोजपुरी साहित्य के अईसन चोटी रहल बानी जेकरा के ना उनके पहिले केहू छू सकल, ना उनके बाद केहू ओकरा अगल-बगल भी चहुंप पाईल। भोजपुरिया लोग के सुख-दुख, सांस्कृतिक आ सामाजिक परंपरा अउर राग-विराग के जईसन गहिर समझ भिखारी ठाकुर के रहे, ओईसन कउनो दोसर भोजपुरी कवि-लेखक में आजु ले ना भेंटाईल। उहवा के भोजपुरी माटी, संस्कार आ पहचान के प्रतीक रहनी। बहुआयामी प्रतिभा के धनी भिखारी ठाकुर एके संगे कवि, गीतकार, नाटककार, निर्देशक, लोक संगीतकार आ अभिनेता रहनी। उनका के अईसही भोजपुरी के शेक्सपियर ना कहल जाला। हिंदी के बड़हन नाटककार आ लेखक जगदीशचंद्र माथुर जी भिखारी ठाकुर के भरत मुनि के परंपरा के नाटककार बतवले रहले।

बिहार के सारण जिले के कुतुबपुर गांव के एगो गरीब नाई परिवार में जनमल भिखारी ठाकुर के बचपन अभावे में बीतल। उनकर स्कूली पढ़ाई नाम भर के हो सकल। लरिकाईये में रोजगार के खोज में ऊ खडगपुर आ पुरी चल गईलन जहां मज़दूरन के संगे रहत-रहत उनका गीत गवनई के चस्का लाग गईल। बहुते बरिस ले भोजपुरिया मजदूरन के टोला-मोहल्ला में गावत रह गईले। लोग के बाहबाही आ बुलावा मिले लागल त उनका मन में बिचार आईल कि गीत गवनई से भी रोजी-रोजगार चलावल जा सकेला। इरादा मज़बूत भईल त एक दिन रोजगार छोड़के घरे लौटे अईले आ गांव में पांच-दस गो ईयार सबके लेके रमलीला मंडली बना लेहले। गांव-जवार में रमलीला में तनि-मनी सफलता ज़रूर मिलल, बाकी ढेर दिन ले ओहिमे उनकर मन ना रमल। उनका भीतर के लेखक आ कलाकार जब कुछु अलग करे ला बेचैन करे लागल तब ऊ अपने नाटक आ गीत लिखे लगले आ छपरा जिला के गांव-गांव घूमके नाटक खेले लगले। उनका नाटक में माई भाषा भोजपुरी में गांव-गंवई के सामाजिक अउर घर-परिवार के समस्याएं रहत रहे जेकरा से लोग सरलता से जुड़ जात रहे। मनभावन लोक संगीत उनकर नाटक के जान-परान रहे। गंदगी आ फूहड़ता के कहीं नामोनिशान ना होखे। जवार के पढ़ल-लिखल आ धनी-मानी लोग उनके नाटक के भले गंवई कहत रहे, बाकि गरीब-गुरबा लोग के बीच उनकर लोकप्रियता बढ़ते चल गईल। कुछे बरिस में उनकर संगीत प्रधान नाटक के जस छपरा जिला आ बिहार से निकल के सगरे उत्तर भारत आ नेपाल के ओ सब इलाका में फ़ैल गईल जहवा भोजपुरिया लोग बसल रहे चाहे जहां भोजपुरिया मजदूरन के टोला-मोहल्ला बन गईल रहे। उनकर नाटक के लोकप्रियता के हाल ई रहे कि उनका के देखे-सुने खतिरा लोग खुशी-खुशी दस-दस कोस पैदल चल के आवत रहे आ सांझि बेरा नाटक में बईठे के जगह मिल जाय एकरा खतिरा दिने से जघे छेक के बईठ जात रहे लोग।

भिखारी ठाकुर जेतना नाटक लिखले आ खेलले रहले,ओकर नाम बाटे – बिदेसिया, गबरघिचोर, भाई विरोध, बेटी बेचवा, कलयुग प्रेम, विधवा विलाप, गंगा अस्नान, ननद-भौजाई संवाद, पुत्र-वध, राधेश्याम बहार, द्रौपदी पुकार, बहरा बहार, बिरहा-बहार और नक़ल भांड अ नेटुआ के। ‘विदेसिया’ आजु ले उनकर सबसे जबर आ लोकप्रिय नाटक मानल जाला जेहपर फिलिम भी बनल आ दरजन भर से जियादा ओकर नाट्य रूपांतरण भी भईल। ‘बिदेसिया’ नाटक एगो अईसन मेहरारू के बिछोह-बियोग के कथा बा जेकर मजूर मरद रोजी कमाए शहर गईल आ कौनो दोसर औरत के होके रह गईल। ‘बिदेसिया’ में भिखारी जी बिहार से गांव से रोजी-रोज़गार खतिरा शहर में जाके रहे वाला लोग के पीड़ा आ संघर्षों के देखवले बाड़े। आपन सभे नाटक में भिखारी जी गांव के औरत आ दलित-अछूत लोग के करुण चित्र भी खींचले बाड़े, उनके संघर्ष के बानी भी देहले बाड़े आ भोजपुरिया इलाका में फइलल कुप्रथा अउर अंधविश्वास पर भी चोट कईले बाड़े। उनके नाटकन में हर जघे एगो गहिर करुणा आ व्यथा पसरल महसूस होला। अईसन करुणा आ व्यथा जवन निरास ना करेला, भरोसा देला कि सुधार के रस्ता कहीं से भी खुल सकेला। कहीं-कहीं उनकर रचना में परंपरा से चलल आवत सामंती मूल्य के समर्थन जरूर बुझाला, बाकि ओकरा मूल में सामाजिक बराबरी के सपना जरूर होखेला। सामाजिक चेतना के दूत भिखारी ठाकुर के भोजपुरी में स्त्री विमर्श आ दलित विमर्श के जन्मदाता मानल जाला। उनकर नाटक मंडली बिहार और देस के अलावा मारीशस, फीजी, केन्या, नेपाल, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम, यूगांडा, सिंगापुर, म्यांमार, साउथ अफ्रीका, त्रिनिदाद जईसन बिदेस में जाके उहवां के भोजपुरी मूल के लोग के ना खाली मनोरंजन कईलस, बल्कि ओहिजा के लोग के आपन भूलल-बिसरल जड़ से परिचित भी करवलस।

1971 में भिखारी ठाकुर के मरला के बाद उनकर नाटक मंडली कुछ बरिस ले उनकर परंपरा के जियावे के कोशिश जरूर कईलस, बाकि उनकर मंडली जल्दिये बिखर गईल। भोजपुरी क्षेत्र में भिखारी जी के नाटक के जघे एक बार फेरु पहले से चलत आ रहल ‘लौंडा नाच’ ले लेहलस जेहमें मरद लोग जनानी के कपडा पहिन के नाचतो रहे लोग आ जनानी हाव-भाव में बोलत-बतियावत भी रहे लोग। जल्दिये ‘लौंडा नाच’ के चलन भी ओरा गईल। ऊ दौर अईसन रहे जब क़स्बा-क़स्बा में सिनेमा हौल खुले लागल। धीरे-धीरे मनोरंजन के साधन के रूप में सिनेमा नाटक, नौटंकी, लोकगीत सहित सगरे लोककला के खा गईल। अब त ऊ ज़माना के ईयादे भर रह गईल बाटे।

भोजपुरिया मिट्टी के लाल भिखारी ठाकुर के जयंती पर नमन आ श्रद्धांजलि, उनकर लिखल एगो बारहमासा के साथ !

आवेला आसाढ़ मास, लागेला अधिक आस
बरखा में पिया रहितन पासवा बटोहिया।

पिया अइतन बुनिया में,राखि लिहतन दुनिया में
अखरेला अधिका सवनवां बटोहिया।

आई जब मास भादों, सभे खेली दही-कादो
कृष्ण के जनम बीती असहीं बटोहिया।

आसिन महीनवां के, कड़ा घाम दिनवा के
लूकवा समानवां बुझाला हो बटोहिया।

कातिक के मासवा में, पियऊ का फांसवा में
हाड़ में से रसवा चुअत बा बटोहिया।

अगहन- पूस मासे, दुख कहीं केकरा से
बनवा सरिस बा भवनवा बटोहिया।

मास आई बाघवा, कंपावे लागी माघवा
त हाड़वा में जाड़वा समाई हो बटोहिया।

पलंग बा सूनवा, का कइली अयगुनवा से
भारी ह महिनवा फगुनवा बटोहिया।

अबीर के घोरि-घोरि, सब लोग खेली होरी
रंगवा में भंगवा परल हो बटोहिया।

कोइलि के मीठी बोली, लागेला करेजे गोली
पिया बिनु भावे ना चइतवा बटोहिया।

ध्रुव गुप्त ( Dhruv Gupt )

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