माई तरकुलहा देवी मंदिर : इहां अग्रेजन के मूड़ी काटके माई के चढ़ावत रहने बाबू बंधू सिंह
जानीं एह मंदिर के खासियत
माई तरकुलहा देवी मंदिर में स्थानीय लोग के अलावा गोरखपुर-बस्ती मंडल के सब जनपद अउर नेपाल से बड़ संख्या में भक्त माई के दर्शन करे आवेने। गोरखपुर जिला मुख्यालय से लमसम 22 किलोमीटर दूर देवरिया रोड पs फुटहवा इनार के लग्गे मंदिर मार्ग के मुख्य गेट बा। उहवाँ से लमसम डेढ़ किमी पैदल, निजी वाहन चाहे आटो से चलके मंदिर पहुंचल जा सकsता।
मंदिर के इतिहास
मंदिर के कहानी चौरीचौरा तहसील क्षेत्र के विकास खंड सरदारनगर अंतर्गत स्थित डुमरी रियासत के बाबू शिव प्रसाद सिंह के पुत्र अउर 1857 के अमर शहीद बाबू बंधू सिंह से जुड़ल बा। कहल जाला कि बाबू बंधू सिंह तरकुलहा के लग्गे बसल घनहा जंगल में रहके माई पूजा-अर्चना करत रहने| ऊ अंग्रेजन के मूड़ी काटके माई के चरण में चढ़ावत रहने। बाबू बंधू सिंह अपने गुरिल्ला युद्ध के माध्यम से अंग्रेजन के मूड़ी कलम कके माई के चढ़ावल शुरू कs देहने। जेसे अंग्रेज अफसर घबरा गइने सब अउर धोखे से बंधू सिंह के गिरफ्तार के ओनके फांसी पर लटकवले के आदेश दे देहलस।
फांसी के फंदे पर लटकते टूट गइल रहल फंदा
जनश्रुति के अनुसार अंग्रेज बंधू सिंह के जइसहीं फांसी के फंदा पर लटकवने सब, फांसी के फंदा टूट गइल। ई क्रम लगातार सात बेर चलल। जेके देखके अंग्रेज हक्का-बक्का रह गइने सब। तब बंधू सिंह माई तरकुलहा से अनुरोध कइने कि हे माई! हमके अपने चरण में ले ल। आठवा बेर बंधू सिंह अपनिये फांसी के फंदा अपने गला में डलने। एकरे बाद ओनके फांसी हो गइल। बाद में भक्त लोग मंदिर के निर्माण करववने।
मंदिर के विशेषता
माई तरकुलहा देवी मंदिर स्वतंत्रता संग्राम के साक्षी बा। ओह समय ई जंगल रहल। एहलिए स्वतंत्रता संग्राम सेनानियन के लुकइले के सबसे मुफीद जगही रहल। देशभक्त इहां माई के पूजा-अर्चना क के अपने अभियान पs निकलत रहने। एहके अलावा ईहां राम नवमी से एक महीना के मेला लागsला। ई पुरान परंपरा बा। लेकिन अब उहवाँ सौ से अधिक दुकान स्थायी बा अउर रोज मेला के दृश्य होला। लोग पिकनिको मनावे उहवाँ जाला। मुंडन अउर जनेऊ अउर दूसर संस्कारो एहिजा होला।
देस के एकलौता मन्दिर जहवाँ परसादी में मटन चढ़ावल जाला
ई देश के इकलौता मंदिर बा जहवाँ प्रसाद के रूप में मटन देहल जाला। बंधू सिंह अंग्रेजन के मूड़ी चढ़वले के जौन बली के परम्परा शुरू कइले रहने, ऊ आजो ईहाँ चालू बा। अब ईहाँ पर बकरा के बलि चढ़ावल जाला, एकरे बाद बकरा के मांस के माटी के बरतन में पका के प्रसाद के रूप में बाटल जाला।
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