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कविता: जनकवि कैलाश गौतम जी के कविता “बाबू आन्हर माई आन्हर”

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बाबू आन्हर माई आन्हर

हमै छोड़ सब भाई आन्हर

के-के, के-के दिया देखाई

बिजुली अस भउजाई आन्हर॥

 

हमरे घर क हाल न पूछा

भूत प्रेत बैताल न पूछा

जब से नेंय दियाइल तब से

निकल रहल कंकाल न पूँछा

ओझा सोखा मुल्ला पीर

केकर-केकर देईं नजीर

जंतर-मन्तर टोना-टोटका

पूजा पाठ दवाई आन्हर॥

 

जे आवै ते लूटै खाय

परचल घोड़ भुसवले जाय

हँस-हँस बोलै ठोंकै पीठ

सौ-सौ पाठ पढ़वले जाय

केहू ओन‍इस केहू बीस

जोरै हाथ निपोरै खीस

रोज-रोज मुर्गा तोरत हौ

क‍इसे कहीं बिलाई आन्हर॥

 

इनकर किरिया उनकर बात

सोच-सोच के काटीं रात

के केतनी पानी में ह‍उवै

मालुम हौ सब कर औकात

फूटल जइसे करम हमार

ओरहन सुन-सुन दुखै कपार

आपन तेल निहारत नाँही

दिया कहे पुरवाई आन्हर॥

 

पूत जनमलैं लोलक लईया

बोवैं धान पछोरैं पा‍इया

घर-घर चूल्हा अलग करवलीं

कुल गुनवां क पाखर अ‍इया

कुछ अइसन कुन्डली बनल हौ

रस्ता रस्ता कुआँ खनल हौ

न‍इहर ग‍इल रहल मेहरारू

ली आइल महगाई आन्हर॥

 

हाहाकार हौ चारों ओरी

पूरुब आग त पच्छिव चोरी

ओकरे कैसे कवर घोटाई

जेकर अहरा कुकुर अगोरी

दूध क माछी नाक क बार

दूनो देखली ए सरकार

एक आँख क कवन निहोरा

जहाँ तीन चौथाई आन्हर॥

✍️ जनकवि कैलाश गौतम

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