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मुंशी प्रेमचंद जन्मदिन विशेष: हिंदी साहित्य के पहिलका प्रगतिशील लेखक, जेकर सपना अबहीं ले अधूरा बा

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प्रेमचंद एगो अइसन देश आ समाज के कल्पना कइलन जवना में किसान, मजदूर, दलित आ गरीबन खातिर जगह रही ।

जेकरा के दादा, बाप, बेटा पढ़ले बाड़े आ अपना बेटा के भी पढ़ावत बाड़े, माने कि जे पीढ़ी दर पीढ़ी पार हो जाला, ओकरा के खाली लेखक ना कालजयी लेखक कहल जाई। हिंदी के पहिला उपन्यासकार आ कहानीकार प्रेमचंद अइसने एगो कालजयी साहित्यकार हउवें, जे पीढ़ियन आ समय के सीमा पार कइले बाड़न आ आज ले हिंदी साहित्य में निर्विवाद रूप से शीर्ष पर बनल बाड़न ।

जदी जिनगी के संघर्ष आ परेशानी के कागज पर चित्रित कइल जा सकेला तs भारतीय साहित्यकारन में प्रेमचंद एकर उदाहरण बाड़े । जदी गरीब, पिछड़ा आ दलित के जिनगी के अउरी जोरदार आवाज दिहल जा सकेला तs प्रेमचंद सबसे पहिले हिंदी साहित्य में एह रचना के शुरुआत कइले रहले । प्रेमचंद पहिला हिंदी उपन्यासकार बाड़न जे साहित्य में आजादी खातिर आवाज, प्रगतिवाद, उपनिवेशवाद के विरोध, ब्राह्मणवाद आ सामंती समाज के विरोध, जातिवाद के विरोध आ अछूतता के परंपरा शुरू कइले बाड़न। प्रेमचंद अपना उपन्यास आ कहानी में भारतीय समाज के नंगा सच्चाई के अइसन चित्रण कइले कि दुनिया अचंभित हो गइल।

उनकर बचपन के नाम धनपत राय रहे। उहाँ के नवाब राय के नाम से कहानी लिखत रहले। 1907 में प्रेमचंद के पांच कहानी संग्रह सोज-वतन प्रकाशित भइल। देशभक्ति आ आम जनता के पीड़ा से भरल एह कहानी पर अंग्रेज सरकार रोक लगा दिहलस आ ओह लोग के लेखन पर रोक लगा दिहल गइल । एकरा बाद ऊ आपन नाम बदल के “प्रेमचंद” के नाव से लिखे लगले।

साम्प्रदायिकता देश के बंटवारा के कारण बन गइल।

प्रेमचंद कई गो वैचारिक लेख लिखलें आ राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता, उपनिवेशवाद आ साम्राज्यवाद पर बेबाक राय दिहलें। ऊ लिखले कि, ‘साम्प्रदायिकता हमेशा संस्कृति के अपील करेला। शायद ओकरा अपना असली रूप में निकले में लाज लागेला, एहसे जवन गदहा पहिले शेर के खाल पहिन के जंगल में जानवर पs हावी होखत रहे, ओसही संस्कृति खोल में आवेली , हालांकि संस्कृति के धर्म से कवनो संबंध नइखे।

अपूरवानंद के कहनाम बा कि प्रेमचंद राष्ट्रवाद के कोढ़ कहले रहले। ऊ राष्ट्रवाद के कट्टर आलोचक रहले। ओह घरी जेतना हिम्मत से लिखले रहले, आज के जमाना अइसन बा कि जदी कवनो साहित्यकार राष्ट्रवाद के कोढ़ कहे तs संभव बा कि ओकर अंत जेल में हो सकेला ।

प्रेमचंद्र स्वतंत्रता संग्राम में एकता खातिर राष्ट्रवाद के भूमिका के महत्व देत रहले, बाकी स्वतंत्र भारत में अइसन राष्ट्रवाद चाहत रहले जवन गरीब, किसान आ मजदूर के सहारा देवे। ऊ लिखले कि लोकतंत्र सिर्फ गुटबाजी ही बन गइल बा। जेकरा लगे पईसा बा, जेकरा जुबान में जादू बा, जे जनता के निमन सपना देखा सकत बा, ऊ लोकतंत्र के आड़ में सब सत्ता अपना हाथ में ले लेवेला।

ऊ चाहत रहे कि ‘दुनिया के कल्याण तबे हो सकेला जब संकीर्ण राष्ट्रवाद के भावना के छोड़ के सोच व्यापक अंतर्राष्ट्रीय भावना में कइल जाए… राष्ट्रवाद के पहिला शर्त बा कि जाति व्यवस्था के जड़ खोद के निकालल जाए, भेदभाव के उच्च-नीच आ धार्मिक पाखंड।’

अपना राष्ट्र के कल्पना करत प्रेमचंद लिखले बाड़न कि ‘जवना राष्ट्रवाद के हम सपना देखत बानी सs, ओकरा में जन्म से जाति के गंध तक ना होई, ऊ हमनी के मजदूर आ किसान के साम्राज्य होई, जवना में ना ब्राह्मण होई, ना हरिजन, ना होई कायस्थ, कवनो क्षत्रिय ना। एहमें सब भारतीय होखीहें, सब ब्राह्मण भा सब हरिजन… हमनी के स्वराज खाली विदेशी जुआ से मुक्ति ना हs, बलुक सामाजिक जुआ से भी मुक्ति हs, ई पाखंडी जुआ, जवन विदेशी शासन से भी घातक बा।

का भारत जाति, धर्म आ शोषण से मुक्त प्रेमचंद के सपना के समाज बन सकेला? दुर्भाग्य से हमनी के ना कहे के बा। ऊ सपना अबहीं ले अधूरा बा ।

 

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